उत्पादन बढ़ाने के लिए गेहूं की जीन मैपिंग

मौसम में बदलाव के कारण फसलें अक्सर बर्बाद हो जाती हैं. कहीं भयानक सूखा तो कहीं बिन मौसम बरसात फसलों को नष्ट कर देती है.

लेकिन अब गेहूं की एक ऐसी नस्ल उपजाने पर काम हो रहा है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित न हो. जो गर्म हवाओं को सह सके और जिसे कम पानी की ज़रूरत हो.

इसके लिए फसलों की जीन मैपिंग की जा रही है. शोधकर्ताओं का कहना है कि ये जीन मैपिंग ऐसी नस्ल के विकास को बढ़ावा देगी जो जलवायु परिवर्तन के कारण चलने वाली गर्म हवाओं से फसल को बचा सकती है.

ये शोध जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है. प्रोजेक्ट ​लीडर प्रोफेसर क्रिस्टोबल यूवेयूई गेहूं के इस जीन को एक गेम चेंजर की तरह मानते हैं.

उन्होंने कहा, ''हमें जलवायु परिवर्तन और बढ़ती हुई मांग को देखते हुए गेहूं के टिकाऊ उत्पादन के तरीक़े खोजने की ज़रूरत है.''

वे कहते हैं, ''इसका हम कई सालों से इंतजार कर रहे हैं. इसे लेकर सभी में उत्सुकता है क्योंकि पहली बार वैज्ञानिक अधिक लक्षित तरीके से गेहूं की पैदावार पाने में सक्षम होंगे ताकि भविष्य में दुनिया को पर्याप्त भोजन मुहैया कराया जा सके.''

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संस्थान (एफएओ) का अनुमान है कि साल 2050 तक पूरी जनसंख्या का पेट भरने के लिए गेहूं के उत्पादन में 60 प्र​तिशत बढ़ोतरी की ज़रूरत है. मैक्सिको शहर के पास स्थित इंटरनेशनल मेज़ एंड व्हीट इंप्रूवमेंट सेंटर (सीआईएमएमवाईटी) गेहूं की नई नस्लों को विकसित करने और दुनिया के कुछ गरीब देशों में किसानों के लिए उत्पादन बढ़ाने का काम करता है.

सेंटर के प्रमुख डॉ. रवि सिंह कहते हैं, ''सीआईएमएमवाईटी पारंपरिक क्रॉस ब्रीडिंग के ज़रिए लंबे समय से गेहूं की ऐसी नस्लों पर काम कर रहा है जो बीमारियों से बच सकें. लेकिन भविष्य में जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए ऐसी फसलों की जरूरत है जो गर्म मौसम को सहन कर सकें और जिन्हें कम पानी की ज़रूरत हो. ऐसी नस्लों का विकास करना संस्थान की प्राथमिकता बन गया है.''

वो कहते हैं, ''गेहूं की फसल के लिए पहले कुछ महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. लेकिन इस समय पर अगर रात का तापमान एक डिग्री भी बढ़ जाता है तो फसल में 8 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है. इसलिए उन्हें मौसम के अचानक बदलाव से बचाना हमारे ब्रीडिंग प्रोग्राम का अहम हिस्सा है.''

वैज्ञानिक हर साल पारंपरिक क्रॉस ब्रीडिंग के जरिए गेहूं की नई नस्लें विकसित करते हैं. ये तरीका फायदेमंद तो होता है लेकिन इसमें मेहनत और पैसा बहुत लगता है.

एक तरह से यह बहुत अनिश्चित होता है. जैसे कि नतीजे आने के बाद ही पता चल पाता है कि जिन नस्लों की क्रॉस ब्रीडिंग की गई है, उनके वही जीन आपस में मिले हैं जिनकी उम्मीद थी. वरना आपकी मेहनत बर्बाद हो जाती है.

एक नई नस्ल को विकसित करने और खेतों तक पहुंचाने में 10 से 15 साल तक का समय लग सकता है. शोधकर्ताओं ने अब एक लाख से ज्यादा जीन और गेहूं के डीएनए में उनकी जगह का पता लगा लिया है.

इस तरह जब ये पता चल जाएगा कि सभी जीन कहां पर है, तो शोधकर्ता यह जान पाएंगे कि जीन सूखे का प्रतिरोध, पोषक तत्व बढ़ाना और अधिक उपज जैसी विशेषताओं को नियंत्रित करने के लिए कैसे एक साथ काम करते हैं.

फिर जीन एडिटिंग तकनीक के जरिए वैज्ञानिक गेहूं की किसी नस्ल में ऐसी विशेषताएं जोड़ सकते हैं जो उन्हें जल्दी और सटीक रूप से चाहिए.

उत्पादन बढ़ाने के लिए जीन एडिटिंग की आलोचना करने वाले कहते हैं कि दुनिया में पर्याप्त खाना है. बस समस्या है तो उसे जरूरतमंदों के अनुसार वितरण करने की. सीआईएमएमवाईटी के ग्लोबल व्हीट प्रोग्राम के निदेशक डॉ. हेंस ब्रोन भी इससे सहमति जताते हैं.

वहीं अभियान समूह जीनवॉच यूके की डॉ. हेलीन वॉलिस कहती हैं कि शोधकर्ताओं को बहुत बड़े वादे करने से बचना चाहिए. जीन एडिटिंग से असल में क्या फ़ायदा होगा, वो गेहूं की जटिलता और उन पर मौसम के प्रभाव पर निर्भर करता है.

वह कहती हैं, ''इसके कुछ नुकसान भी हो सकते हैं. जैसे पोषण में बदलाव करने से कई बार कीट अधिक आकर्षित होते हैं या ये खाने वालों को भी नुकसान पहुंचा सकता है. इस मामले में सख़्त नियम, ट्रेस करने की क्षमता और लेबलिंग वातावरण, स्वास्थ्य और उपभोक्ता हितों की रक्षा करने के लिए जरूरी है.''

गेहूं के लिए जीन मैप बनाने में 20 देशों के 200 से ज्यादा वैज्ञानिक और 73 शोध संस्थानों ने मिलकर काम किया. उनके पास डीएनए के 16 अरब अलग केमिकल बिल्डिंग ब्लॉक्स हैं जो इंसानी जीन के समूहों से पांच गुना बड़े हैं. इसके अलावा गेहूं में तीन अलग तरह के जीन के उप समूह होते हैं. तीनों उप समूहों में अंतर करना और उन्हें सही क्रम में एक साथ रखना वैज्ञानिकों के लिए मुश्किल हो जाता है.

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