तमिलनाडु से शुरू हुई मुफ्त सामान बांटने की राजनीति उत्तर में भी हावी, लोकतंत्र के लिए यह ठीक नहीं

नई दिल्ली

चुनावों में विकास के दूरगामी वादों की बजाय अब मुफ्त की सामग्री एवं सुविधाएं प्रदान करने की राजनीति ज्यादा असरदार साबित होती दिख रही है। यही कारण है कि हर दल किसी न किसी रूप में इस राजनीति का सहारा ले रहा है। लेकिन, विशेषज्ञ इसे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं मानते हैं। मुफ्त सामग्री देने की राजनीति की शुरुआत 60 के दशक में तमिलनाडु से शुरू हुई थी, जब द्रमुक के सी.एन. अन्नादुरई ने 4.5 किलो अनाज देने का वादा किया था। वह चुनाव जीते और उन्होंने इसे लागू भी किया। यह अलग बात है कि राज्य पर बढ़ते आर्थिक बोझ के कारण उन्होंने कुछ अरसे बाद ही मुफ्त की इस योजना को बंद कर दिया। लेकिन, तमिलनाडु की राजनीति में तभी से यह चलन शुरू हो गया।

द्रमुक-अन्नाद्रमुक दोनों हर चुनाव में किसी न किसी रूप में मुफ्त में कुछ न कुछ देने का वादा करते रहे। जिसमें साइकिल, फोन, मिक्सी, टीवी, दुधारू पशु, कर्ज की माफी, नकदी आदि शामिल हैं। लेकिन, दक्षिण की राजनीति से शुरू हुआ मुफ्त का यह चलन आज उत्तर भारतीय राज्यों की राजनीति में भी हावी हो चुका है। स्मार्ट फोन, साइकिल, तीर्थयात्रा, टैबलेट, स्कूटी आदि मुफ्त में देने के वादे किए जा रहे हैं।

मुफ्त की सामग्री और सुविधाएं देने का मुद्दा
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में होना जा रहे विधानसभा चुनावों में मुफ्त की सामग्री और सुविधाएं देने का मुद्दा छाया हुआ है। हर दल अपने-अपने तरीके से इस प्रकार की घोषणाएं कर रहे हैं। जो दल सत्ता में हैं, वह वादों को पूरा करके भी दिखा रहे हैं। पूर्व में हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश के चुनावों में भी मुफ्त देने की घोषणाएं की गईं। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के एक मामले में ही कहा कि चुनाव घोषणापत्र में मुफ्त टीवी देने की घोषणा भ्रष्ट चुनावी आचरण नहीं है। चुनाव आयोग ने भी कुछ दिशा-निर्देश बनाए हैं, लेकिन इस पर कोई रोक नहीं है।

लोकतंत्र के लिए खतरा
आईआईटी मद्रास के एसोसिएट प्रोफेसर सुदर्शन पद्मनाभन ने अपने एक शोधपत्र में कहा है, ''तमिलनाडु की राजनीतिक से शुरू हुआ मुफ्त का यह ‘खेल’ आज लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुका है। इसके पीछे कई कारण माने जा रहे हैं। एक तो ये कि मुफ्त की चीजें मिलने से लोग आलसी हो जाते हैं। चुनाव-दर-चुनाव उनकी उम्मीदें बढ़ती जाएंगी। दूसरे, एक बार शुरू होने पर इस सिलसिले का कोई अंत नहीं है। यह परंपरा एक बार यह शुरू होने पर कभी खत्म नहीं होगी।''

उन्होंने कहा, ''करों से प्राप्त राशि को चुनावी लाभ के लिए बांटना भी ठीक नहीं है। इससे गरीब लोग ज्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि जो राशि गरीब केंद्रित विकास पर खर्च होनी चाहिए, वह मुफ्त की सामग्रियों के वितरण पर हो रही है। जिन्हें यह सामग्री वितरित की जा रही है, उनमें से ज्यादातर लोग उसके वास्तविक हकदार नहीं होते हैं। इसलिए इसके दूरगामी परिणाम विकास को बाधित करने वाले होते हैं।''

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