खजुराहो नृत्य समारोह की कला-वार्ता में नृत्य पर विमर्श

खजुराहो

नृत्य जीवन की उत्सवधर्मिता से जुड़ी शाश्वत और सनातन कला है। नृत्य में सभी कलाओं का मेल है। कलाकार प्रयोग से इसमें बढ़त करता है। विख्यात कवि एवं कला आलोचक और चिंतक डॉ. राजेश कुमार व्यास ने 48वें खजुराहो नृत्य समारोह के अनुषांगिक कार्यक्रम 'कला वार्ता' में अपने व्याख्यान में यह बात कही। उन्होंने नृत्य के भारतीय इतिहास, भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में पूर्वरंग में आये नृत्य लक्षणों, कर्ण, अंगहार आदि की विशद चर्चा की। उन्होंने कहा कि यह विडंबना ही है कि नृत्य स्वायत्त होते हुए भी  विमर्श से गौण हो रहा है।

डॉ. व्यास ने बिरजू महाराज और अन्य नर्तकों का  संस्मरण साझा करते हुए कहा कि अपने नृत्य में बिरजू महाराज ने राधा को आत्म-सात किया था। कथक को उन्होंने जीवन से जोड़ा। केलुचरण महापात्रा ने 'गोटिपुआ', 'महरी' के प्रयोग से ओडिसी को बहुआयामी बनाया। इसी तरह नृत्य सम्राट उदयशंकर ने गवरी, बेले आदि नृत्यों के मेल से विरल नृत्य मुहावरा रचा।

डॉ. व्यास ने कलाओं के अन्तःसम्बन्धों की चर्चा करते हुए नृत्य में प्रयोगधर्मिता और संवाद के जरिये उसके विकास पर ध्यान दिए जाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि  नृत्य ऐसी कला है, जो मूर्ति में, चित्र में स्थिर भी है तो भी गत्यात्मकता का अहसास कराती है। उन्होंने कहा कि कलाएँ व्यक्ति को अंतर से संस्कारित करती हैं। नृत्य कला देखने का संस्कार देती है। उन्होंने विभिन्न कलाओं के उदाहरण देते हुए खजुराहो के इतिहास और शिल्प की जीवंतता के सौंदर्य पक्ष को भी अपने व्याख्यान में उद्घाटित किया। डॉ. व्यास ने कलाओं की भारतीय दृष्टि को अपनी मौलिक स्थापनाओं में सौंदर्य दर्शन को भी समझाया। उन्होंने कहा कि अनुभूति आलोक रचती है, सौन्दर्यशास्त्र हमें सिद्धांत से जोड़ता है। कला में अनुभूतियों का अन्वेषण और लोक से जुड़ी दृष्टि भी महत्वपूर्ण है।

संचालन कला समीक्षक, लेखक श्री विनय उपाध्याय ने किया। उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ संगीत एवं कला अकादमी के निदेशक श्री जयंत माधव भिसे, उपनिदेशक श्री राहुल रस्तोगी, सुश्री सोनिया परचुरे एवं सुश्री संध्या परेचा सहित बड़ी संख्या में कला प्रेमी और पर्यटक उपस्थित थे।

फिल्मों का प्रदर्शन

समारोह में तीन शार्ट फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। इनमें सिद्धार्थ श्रीनिवासन की बहरूपिया, कुचिपुड़ी नृत्य पर दुलम सत्यनारायण की फ़िल्म बलक्का और श्रीधर सुधीर की फ़िल्म कैथी शामिल हैं। इन फिल्मों को बड़ी संख्या में कला के छात्रों एव रसिकों ने देखा।

 

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