1977 के लोकसभा चुनाव की कहानी, जब बिना PM चेहरे के विपक्ष ने इंदिरा गांधी को हराया

नई दिल्ली
 20 मार्च 1977 का वो ऐतिहासिक दिन। 6वीं लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी सत्ता गंवा चुके थे और जनता दल पहली बार इलेक्शन जीतकर सरकार बना रही थी। इस बदलाव से देशभर में जनता दल समर्थक सड़क पर उत्साह मना रहे थे। लोकसभा चुनाव के इतिहास में यह वो पल था, जब बिना पीएम चेहरे के विपक्षी दल ने उस वक्त की सबसे ताकतवर नेता को हरा दिया था। इस चुनाव में इंदिरा गांधी के लिए यह हार इसलिए भी बेहद निराशाजनक थी, क्योंकि वह अपनी सीट रायबरेली भी नहीं जीत सकी। 1977 लोकसभा चुनाव की बात अचानक क्यों उठ रही है? दरअसल, दिग्गज भारतीय राजनेता और महाराष्ट्र के पूर्व सीएम शरद पवार ने इस पर बयान दिया है। विपक्ष के पीएम फेस पर अभी तक कोई एक राय न होने पर बात करते हुए शरद पवार ने कहा कि ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है, 1977 में भी ऐसा ही था। तो फिर इस बार हम क्यों नहीं जीत सकते। चलिए जानते हैं कि 1977 में ऐसा क्या हुआ कि इतनी ताकत के बावजूद इंदिरा गांधी हार गई?

पहले जान लेते हैं कि शनिवार को शरद पवार ने क्या कहा? नई दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में शरद पवार ने एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि वह 23 जून को पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा बुलाई गई विपक्षी नेताओं की बैठक में शामिल होंगे और भाजपा के खिलाफ संयुक्त लड़ाई लड़ने का प्रयास करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक पीएम चेहरा न चुन पाना विपक्ष की कमजोरी नहीं है। क्योंकि ऐसा 1977 में भी हुआ था, जब हम उस वक्त जीते तो अभी क्यों नहीं? शरद पवार ने दावा किया कि इस वक्त समूचा विपक्ष एकजुट है और हमारा पूरा प्रयास 2024 लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराना होगा।

इंदिरा के फैसले से अचंभित था विपक्ष
1977 लोकसभा चुनाव का कार्यकाल नवंबर महीने में समाप्त होने वाला था लेकिन, इंदिरा गांधी ने 18 जनवरी को ही चुनाव की घोषणा करके विपक्ष को अचंभित कर दिया। इंदिरा को लगा कि विपक्ष को तैयारी का मौका नहीं मिलेगा और इसका फायदा उन्हें ही मिलेगा। लेकिन, ऐसा नहीं हो सका। उस वक्त विपक्ष के बड़े नेता चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेई और चंद्रशेखर को लग रहा था कि इंदिरा गांधी विपक्ष को तोड़ने की कोशिश कर रही है, मनोबल गिरा रही है। 1977 लोकसभा चुनाव में जनता दल ने 542 में से 296 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी को 154 सीट मिल पाईं। कांग्रेस को इस चुनाव में 198 सीटों का नुकसान हुआ। यह इंदिरा के लिए बड़ी हार थी, जिसकी उन्होंने बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं की थी।

मोरारजी कैसे बने पीएम
1977 चुनाव की घोषणा इंदिरा गांधी ने महीनों पहले ही कर दी थी, इससे विपक्ष को ज्यादा मौका नहीं मिला। इस मामले के जानकार मानते हैं कि इंदिरा गांधी चाहती भी यहीं थीं। लेकिन, जनता ने इंदिरा गांधी से सत्ता की चाबी जनता दल के हाथ में थमा दी। 20 मार्च को चुनाव के नतीजे सामने आ चुके थे और जनता दल चुनाव जीत चुकी थी। अब सवाल था पीएम के चुनाव का। यह बेहद रोचक है कि चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेई और चंद्रशेखर जैसे दिग्गज नेताओं को पछाड़कर 81 साल के मोरारजी देसाई को सर्वसम्मति से पीएम बनाया गया। हालांकि उनकी सरकार ज्यादा नहीं चली और तीन साल बाद 1980 में फिर चुनाव कराने पड़े।

इंदिरा ने झोंक दी थी पूरी ताकत
मामले के जानकार बताते हैं कि इंदिरा गांधी अपनी जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थीं। उन्होंने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इंदिरा गांधी ने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान 40 हज़ार किलोमीटर की यात्रा की। जम्मू कश्मीर और सिक्किम को छोड़कर वो हर राज्य में गईं और 244 चुनाव सभाओं को संबोधित किया।

अपनी सीट भी नहीं बच पाई
इंदिरा गांधी को 1977 के लोकसभा चुनाव में इस कदर बुरी हार का सामना करना पड़ा कि वो अपनी परंपरागत सीट रायबरेली भी नहीं बचा सकी। इस सीट पर उन्हें जनता दल के बड़े राजनेता और 'जायंट किलर' के नाम से मशहूर राज नारायण ने हराया था। इंदिरा गांधी 55 हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से अपनी सीट हारी। राज नारायण के बारे में कहा जाता था कि अगर वो राजनेता न बनते तो पहलवान जरूर होते। उन्हें पहलवानी का हुआ करता शौक था।

ब्लॉकबस्टर फिल्म बॉबी
बताया जाता है कि इंदिरा गांधी की पार्टी के दिग्गज नेता जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा के इस्तीफ़े के बाद विपक्ष उत्साहित था। विपक्ष ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक ज़बरदस्त रैली का आयोजन किया। कहा जाता है कि इसमें इतना जनसैलाब उमड़ा, जिसकी विपक्ष ने भी उम्मीद नहीं की थी। इस रैली को रोकने के लिए तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने इंदिरा के कहने पर 1973 की ब्लॉकबस्टर फिल्म बॉबी को दूरदर्शन पर चलाने का फैसला लिया। हालांकि यह ट्रिक भी काम नहीं आई। लोग कई किलोमीटर पैदल चलकर विपक्ष की रैली में पहुंचे थे।

 

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