वो तीन विधेयक, जिन्हें आज राज्यसभा में किया जाएगा पेश 

 
नई दिल्ली 

केंद्र सरकार के खेती-किसानी से जुड़े तीन विधेयकों के खिलाफ किसान लामबंद हैं. लोकसभा में तीनों बिल पास हो गए हैं. अब इसे उच्च सदन यानी राज्यसभा में पेश किया जाना है. किसान संगठन इसके खिलाफ सड़कों पर हैं. विपक्षी दल भी इन तीन विधेयकों का विरोध कर रहे हैं, जबकि केंद्र सरकार इसे किसानों के लिए फायदेमंद बता रही है. विधेयकों के विरोध में एनडीए सरकार की सहयोगी पार्टी अकाली दल की नेता और केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल अपने पद से इस्तीफा दे चुकी हैं. मसला ये है कि किसानों की आमदनी बढ़ाने का वादा करने वाली केंद्र सरकार के इन विधेयकों का विरोध क्यों हो रहा है? क्यों किसानों को लगता है सरकार का ये कदम किसान विरोधी है?  आइए जानते हैं. 

1. फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) बिल

सरकार का कहना था कि कृषि उपज, वाणिज्य और व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक किसानों को उनकी उपज देश में किसी भी व्यक्ति या संस्था (APMC सहित) को बेचने की इजाजत देता है. अब यह सचमुच वन नेशन, वन मार्केट होगा. किसान अपना प्रोडक्ट खेत में या व्यापारिक प्लेटफॉर्म पर देश में कहीं भी बेच सकते हैं. इससे उनकी आमदनी बढ़ेगी.

मगर किसान इसमें अपना नुकसान देख रहे हैं. किसानों को सबसे बड़ा डर मंडी एक्ट के प्रभाव को सीमित करने वाले विधेयक कृषि उपज, वाणिज्य और व्यापार (संवर्धन एवं सुविधा) को लेकर है. इसके जरिए राज्यों के मंडी एक्ट को केवल मंडी परिसर तक ही सीमित कर दिया गया है. यानी अब कहीं पर भी फसलों की खरीद-बिक्री की जा सकेगी. बस फर्क इतना होगा कि मंडी में खरीद-बिक्री पर मंडी शुल्क लगेगा, जबकि बाहर शुल्क से छूट होगी.

राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन मध्य प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष राहुल राज का मानना है कि सरकार के इन विधेयकों से मंडी बोर्ड (मंडी व्यवस्था) खत्म हो जाएगी. उनकी दलील है कि केंद्र सरकार के इन तीनों विधेयकों में बहुत सी खामिया हैं, जिससे किसानों को नुकसान होगा, जबकि कॉरपोरेट जगत और बिचौलिये फायदे में रहेंगे.

राहुल राज का कहना है कि फॉर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) विधेयकों में वन नेशन-वन मार्केट की बात कही जा रही है. लेकिन इसका असली मकसद कृषि उपज विपणन समितियों (APMC) के एकाधिकार को खत्म करना और सभी को कृषि प्रोडक्ट खरीदने-बेचने की इजाजत देना है. राहुल राज के मुताबिक मंडी व्यवस्था खत्म होने से व्यापारियों की मनमानी और बढ़ जाएगी. वो औने-पौने दाम पर किसानों की फसल खरीदेंगे, क्योंकि किसानों के पास कोई विकल्प नहीं होगा.

राहुल राज कहते हैं कि इस कानून की सबसे बड़ी खामी है कि इसमें व्यापारी या कंपनी और किसान के बीच विवाद होने पर पहले एसडीएम और बाद में जिलाधिकारी मामले को सुलझाएंगे. इसमें कोर्ट जाने की व्यवस्था नहीं है, अधिकारी सरकारी नुमाइंदा होता है. उससे कोई किसान न्याय की कितनी उम्मीद कर सकता है? सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की कोई गारंटी नहीं दे रही है. हमें वन नेशन, वन रेट चाहिए.

राहुल राज मध्य प्रदेश में मूंग की मौजूदा कीमत को एमएसपी और मंडी व्यवस्था खत्म होने पर आने वाली व्यापारियों की मनमानी का सबूत बताते हैं. मूंग का न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी 7196 रुपये प्रति क्विंटल घोषित था. लेकिन सरकारी खरीद शुरू न होने से व्यापारी इसके मनमाने दाम लगा रहे थे. किसानों को मूंग के लिए अधिकतम 5200 रुपये प्रति क्विंटल का भाव मिल रहा था. मूंग को हर हाल में बेचना किसानों की मजबूरी थी, क्योंकि उनके पास बारिश के इस मौसम में उसे सुरक्षित रखने की कोई जगह नहीं है. 

2. एसेंशियल एक्ट 1955 में बदलाव

पहले होता यह था कि व्यापारी उपज को किसानों से औने-पौने दामों में खरीदकर उसका भंडारण कर लेते थे. फिर कालाबाजारी होती थी. इस पर रोक लगाने के लिए एसेंशियल कमोडिटी एक्ट 1955 लाया गया था ताकि कारोबारी एक सीमा से अधिक कृषि उपज का भंडारण न करें. मगर नए विधेयक आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी वस्तुओं को हटाने का प्रावधान है. 

सरकार का मानना है कि यह अनाजों, दलहनों, खाद्य तेल, आलू और प्याज को अनिवार्य वस्तुओं की सूची से हटाकर खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को मुक्त कर देगा. यह निजी उद्यमियों को भरोसा और उन्हें इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करता है. इन सभी अध्यादेशों के जरिये सरकार 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का मकसद हासिल कर सकेगी.

किसान एसेंशियल एक्ट 1955 में बदलाव करने से कालाबाजारी बढ़ने की आशंका जता रहे हैं. उनका कहना है कि एसेंशियल एक्ट 1955 को कृषि उपज को जमा करने की अधिकतम सीमा तय करने और कालाबाजारी को रोकने के लिए बनाया गया था. लेकिन नई व्यवस्था में स्टॉक लिमिट को हटा दिया गया है. इससे जमाखोरी और कालाबाजारी बढ़ेगी. 

3. फॉर्मर्स अग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस बिल

सरकार का कहना है कि (व्यावसायिक) खेती के समझौते वक्त की जरूरत हैं. विशेषकर छोटे और सीमांत किसानों के लिए, जो ऊंचे मूल्य की फसलें उगाना चाहते हैं, मगर पैदावार का जोखिम उठाते और घाटा सहते हैं. इस बिल से किसान अपना यह जोखिम कॉरपोरेट खरीदारों को सौंपकर फायदा कमा सकेंगे.

मगर, राहुल राज इससे उलट बताते हैं. उनका कहना था कि इसके जरिये कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को आगे बढ़ाया जाएगा. कंपनियां खेती करेंगी और किसान मजदूर बनकर रह जाएगा. उसके सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होगी. हाल में सरकार ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की गाइडलाइन जारी की है. इसमें कॉन्ट्रैक्ट की भाषा से लेकर कीमत तय करने का फॉर्मूला तक दिया गया है. लेकिन कहीं भी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य का कोई जिक्र नहीं है, जिस पर किसान नेता सवाल उठा रहे हैं. किसान नेता राहुल राज का कहना है कि इन बिलों पर अखिल भारतीय स्तर पर किसानों से मशविरा किया जाना चाहिए था और जानना चाहिए था कि असल में उनकी दिक्कतें क्या हैं?

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