अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस : ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला कर्णम मल्लेश्वरी

नई दिल्ली
महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने और उनके अधिकारों के साथ उन्हें सशक्त बनाने के लिए हर साल आठ मार्च को दुनियाभर में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। इस दौरान हर जगह महिलाओं की उपलब्धियों और उनके हौसले को सराहा जाता है। ऐसे में हम भी अपनी इस खबर में एक ऐसी ही महिला के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसने तमाम परेशानियों और संघर्षों की दीवार को लांघते हुए अपना परचम लहराया। आज हम बात कर रहे हैं उस खिलाड़ी की जिसने ओलंपिक में पहली बार महिला वर्ग में देश को पदक दिलाया। यह खिलाड़ी कोई और नहीं बल्कि 'द आयरन लेडी' के नाम से मशहूर दिग्गज वेटलिफ्टर कर्णम मल्लेश्वरी हैं।

भारत की तरफ से साल 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी ने यह कीर्तिमान रचा था। उन्होंने तब सिडनी में आयोजित हुए ओलंपिक में भारोत्तोलन में देश को पदक दिलाया था, तब से लेकर आज तक इस खेल में भारत कोई दूसरा पदक हासिल नहीं किया।

मल्लेश्वरी ने 25 साल की उम्र में सितंबर 2000 में सिडनी ओलंपिक में कुल 240 किलोग्राम में स्नैच श्रेणी में 110 किलोग्राम और क्लीन एंड जर्क में 130 किलोग्राम भार उठाया और ओलंपिक में पदक (कांस्य) जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं।
 
इसके बाद उनकी ऐतिहासिक उपलब्धियों की वजह से उन्हें जनता ने ’द आयरन लेडी’ नाम दिया। लेकिन इस आयरन लेडी के पीछे भी एक ऐसी महिला का साथ था जिसने उन्हें इतिहास रचने के लिए प्रेरित किया। वो महिला और कोई नहीं बल्कि खुद कर्णम मल्लेश्वरी की मां श्यामला थीं।
 
कहानी 80-90 के दशक की है जब कर्णम आंध्र प्रदेश के एक छोटे से गांव वोसवानिपेटा हैमलेट में 12 साल की उम्र से खेल के मैदान में उतर चुकी थीं। उस समय उनके पिता कर्णम मनोहर जहां एक फुटबॉल खिलाड़ी थे तो वहीं उनकी चार बहनें भारोत्तोलक। लेकिन कर्णम मल्लेश्वरी बेहद कमजोर थीं और उन्हें भारोत्तोलक से दूर रहने को कहा गया। हालांकि तब उनकी मां आगे आयीं और उनका हौसला बढ़ाया। उन्होंने कर्णम को यह विश्वास दिलाया कि वह यह कर सकती हैं।   

1990 में कर्णम की जिंदगी में एक बड़ा बदलाव तब आया जब एशियाई खेल से पहले राष्ट्रीय कैंप लगा। इसमें कर्णम अपनी बहन के साथ एक दर्शक के रूप में गई थीं और खिलाड़ी के तौर पर इसका हिस्सा नहीं थीं, लेकिन इसी दौरान विश्व चैंपियन लियोनिड तारानेंको की नजर उनपर पड़ी। उन्होंने तुरंत ही कर्णम की प्रतिभा को पहचान लिया और कुछ स्किल्स देखने के बाद उन्हें बैंगलोर स्पोर्ट्स इंस्टिट्यूट में भेज दिया।

यहां से कर्णम ने अपनी प्रतिभा दिखानी शुरू की और उसी साल अपना पहले जूनियर राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप में 52 किग्रा भारवर्ग में नौ राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ दिए। इसके एक साल बाद उन्होंने पहला सीनियर राष्ट्रीय चैंपियनशिप का खिताब भी जीत लिया।

कुछ समय बाद ही वो सफलता की सीढ़ियां तेजी से चढ़ने लगीं और देखते-देखते अपनी पहचान बना ली। कर्णम मल्लेश्वरी ने 1993 में विश्व चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता। लेकिन एक साल बाद 1994 में उन्होंने गोल्ड भी अपने नाम कर लिया और फिर 1995 में लगातार दूसरी साल स्वर्ण जीता। 1996 में हालांकि उन्हें कांस्य से ही संतोष करना पड़ा।

बढ़ती उम्र और शारीरिक क्षमता के साथ उन्होंने अपना भारवर्ग बढाकर 63 किलो कर लिया और उसके बाद 1998 में एशियाई गेम्स का अपना दूसरा पदक हासिल किया। उसी वक्त 2000 में सिडनी ओलंपिक्स में पहली बार महिला वेटलिफ्टिंग शामिल की गई।

सिडनी ओलंपिक के शुरू होने से पहले किसी को उनसे पदक की कोई खास उम्मीद नहीं थी क्योंकि 1996 के बाद उन्होंने कोई भी विश्व चैंपियनशिप पदक नहीं जीता था और अपना भारवर्ग भी 69 किलोग्राम कर लिया था। बावजूद इसके मल्लेश्वरी ने सभी को गलत साबित किया। यहां उन्होंने कांस्य पदक जीतकर देश को गौरवान्वित किया।

मल्लेश्वरी 2002 के राष्ट्रमंडल खेलों में वापसी करने की योजना बना रही थी। लेकिन उनके पिता के दुर्भाग्यपूर्ण निधन ने उनकी योजनाओं पर पानी फेर दिया। 2004 में ग्रीस में हुए ओलंपिक में उन्होंने वापसी की, लेकिन बिना किसी पदक के साथ उन्होंने अपने करियर पर विराम लगा दिया।

इस दौरान उन्हें भारत सरकार द्वारा कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिसमें अर्जुन पुरस्कार (1994), राजीव गांधी खेल रत्न (1999) और पद्म श्री (1999) शामिल हैं।

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