सालभर में प्रणब मुखर्जी के 2 फैसलों से तिलमिला उठे थे मनमोहन सिंह, भेज दिया था इस्तीफा

नई दिल्ली 
भारत के सिर्फ पांच नेताओं को ही यह मौका मिला है कि वो अपने राजनीतिक करियर में दो बार अलग-अलग कार्यकाल में  देश के वित्त मंत्री रहे हों। वैसे नेताओं में एक पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भी रहे हैं। उनके अलावा इस श्रेणी में पूर्व वित्त मंत्रियों – टी टी कृष्णामाचारी, मोरारजी देसाई, यशवंत सिन्हा और पी चिदंबरम शामिल हैं जिन्होंने दो कार्यकालों में इस पद को सुशोभित किया है। अधिकांश नेताओं ने चार से सात साल के अंदर दोबारा इस पद को धारण किया था लेकिन प्रणब मुखर्जी के लिए यह अवसर 25 साल बाद आया था। वह जनवरी 1982 से दिसंबर 1984 और जनवरी 2009 से जून 2012 तक देश के वित्त मंत्री रहे हैं। उनके कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन शानदार रहा है लेकिन उनके दो फैसलों से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असहज थे। सिंह मुखर्जी के फैसलों से इतने नाराज थे कि उन्होंने गुस्से में आकर अपना इस्तीफा भेज दिया था।

बात 1983 की है, जब प्रणब मुखर्जी देश के वित्त मंत्री थे और मनमोहन सिंह रिजर्व बैंक के गवर्नर थे। तब केंद्र सरकार विवादास्पद और खराब विनियमित विदेशी बैंक, बैंक ऑफ क्रेडिट एंड कॉमर्स इंटरनेशनल को बॉम्बे (अब मुंबई) में एक शाखा खोलने की अनुमति देना चाहती थी लेकिन आरबीआई गवर्नर के रूप में डॉ मनमोहन सिंह ने इस कदम का विरोध किया था। तब सरकार ने RBI को निर्देश जारी कर कहा था कि BCCI को बॉम्बे में एक शाखा खोलने की अनुमति दी जाए। वित्त मंत्रालय खासकर प्रणब मुखर्जी के इस फैसले से मनमोहन सिंह काफी परेशान हो गए थे।

RBI और सरकार के बीच रिश्तों में तल्खी ऐसी आई कि तत्कालीन कैबिनेट ने बैंकों को लाइसेंस देने के आरबीआई के अधिकारों से उसे वंचित कर दिया और ये शक्ति अपने पास रख ली थी। इसके जवाब में डॉ. मनमोहन सिंह ने अपना इस्तीफा तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भेज दिया था। हालांकि, बाद में परामर्श और पुनर्विचार के बाद, सरकार ने अपने कदम वापस ले लिए थे और टकराव टल गया था।

प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह के बीच दूसरा टकराव साल भर के अंदर ही हो गया। फरवरी 1984 में अपने तीसरे बजट भाषण में मुखर्जी ने प्रवासी भारतीयों (NRIs) के लिए शेयर बाजारों में और भारत में पहले से सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों में निवेश करने का लिए दरवाजा खोल दिया। सरकार का यह कदम तब विवादास्पद हो गया जब इस अनुमति के कारण लंदन स्थित NRI स्वराज पॉल ने एस्कॉर्ट्स और डीसीएम पर कब्जा करने के लिए कुख्यात बोली लगा दी थी। इस मुद्दे पर भी मुखर्जी और मनमोहन सिंह के बीच मतभेद हुआ था। 

RBI ने तब NRI के निवेश से जुड़े नियमों को शिथिल करने के फैसले पर आपत्ति जताई थी लेकिन सरकार ने आरबीआई के कदम को खारिज कर दिया था। राजीव गांधी, जो उस समय अमेठी से संसद सदस्य थे, ने NRI निवेश का स्वागत किया था, लेकिन सुझाव दिया था कि भारतीय कंपनियों में शेयरों की उनकी खरीद पर सीमा तय की जानी चाहिए। आखिरकार, यह सुनिश्चित करने के लिए ऐसी सीमाएं लगाई गईं कि भारतीय कंपनियों के मालिकों को खतरा महसूस न हो।  उनके दखल के बाद बाद दोनों के बीच टकराव खत्म हो गया था।
 

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