रामविलास पासवान: केंद्र में कद्दावर चेहरा, राज्य की सियासत में नहीं खड़ी कर सके अपनी राजनीति

 
नई दिल्ली 

 बिहार की सियासत के दलित चेहरा और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का गुरुवार देर शाम निधन हो गया. रामविलास पासवान अपने राजनीतिक सफर में केंद्र की राजनीति में हमेशा बने रहे और देश के पांच प्रधानमंत्रियों के साथ उन्होंने काम किया. इसके बावजूद बिहार की सियासत में वो अपनी पार्टी एलजेपी की जगह बनाने में कामयाब नहीं रहे. रामविलास पासवान ने अपना राजनीतिक सफर 70 के दशक में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के साथ ही शुरू किया था. 1969 में पहली बार अलौली सीट से विधानसभा चुनाव जीतने वाले पासवान ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और खुद को कभी अप्रासंगिक नहीं होने दिया. 1977 में पहली बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले पासवान 9 बार लोकसभा सांसद रहे. हालांकि, उन्होंने साल 2000 में अपनी लोक जनशक्ति पार्टी की बुनियाद रखी थी. 

देश के 6 प्रधानमंत्री के साथ काम किया

74 वर्षीय रामविलास पासवान बिहार के एकलौते नेता थे, जिन्होंने देश के 6 प्रधानमंत्री के साथ काम किया है. विश्वनाथ प्रताप सिंह, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी सरकार में पासवान मंत्री रहे हैं. केंद्र में मंत्री रहते हुए उन्होंने कई ऐतिहासिक काम भी किए, लेकिन राज्य की सियासत में अपनी जगह बनाने के लिए बेताब रहे. एलजेपी का गठन सामाजिक न्याय और दलितों पीड़ितों की आवाज उठाने के मकसद से किया गया था. बिहार में दलित समुदाय की आबादी तो करीब 17 फीसदी है, लेकिन दुसाध जाति का वोट करीब पांच फीसदी है, जो एलजेपी का कोर वोट बैंक माना जाता है और इस जाति के सर्वमान्य नेता राम विलास पासवान माने गए. इसी के चलते पासवान केंद्र की राजनीति के कद्दावर नेता बनकर उभरे, लेकिन राज्य में कोई सियासी गुल नहीं खिला सके. 

बिहार में किंगमेकर बनकर उभरे

रामविलास पासवान की पार्टी एलजेपी ने बिहार में पहली बार 2004 का लोकसभा चुनाव लड़ा था और चार सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इसी की बदौलत केंद्र की मनमोहन सरकार में वे मंत्री बने. इसके एक छह महीने के बाद ही फरवरी 2005 में बिहार का विधानसभा चुनाव हुआ. पासवान ने अपनी सियासी ताकत को परखने के लिए अकेले चुनाव लड़ा. एलजेपी  178 सीटों पर प्रत्याशी खड़े कर 29 सीटें जीतने में कामयाब रही. इस चुनाव में बिहार में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था और ऐसे में पासवान किंगमेकर बनकर उभरे थे. 

रामविलास पासवान के राजनीतिक जीवन में बिहार का यही एक चुनाव था, जिसमें उनके हाथ सत्ता की चाबी लगी थी. हालांकि, उस वक्त वो प्रदेश के सियासी नब्ज को नहीं समझ सके और उन्होंने समर्थन के बदले मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने का दांव चला, जिसे न तो लालू माने और न ही नीतीश कुमार तैयार हुए. इसके चलते पासवान ने किसी को भी समर्थन नहीं दिया. इसके कारण राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा था. 

बिहार की राजनीति में सिमटते गए पासवान

इसके बाद अक्टूबर 2005 में हुए चुनाव में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन ने 141 सीटें जीतकर एलजेपी की सत्ता की चाबी की अहमियत खत्म कर दी थी. एलजेपी महज 10 सीटों पर सिमट कर रह गई. फरवरी 2005 में पासवान का किसी भी पार्टी को समर्थन न करने का खामियाजा आज भी उनकी पार्टी को उठाना पड़ रहा है. हालांकि, एलजेपी को लोकसभा में जीत तो मिली, लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी दोबारा से नहीं खड़ी हो सकी. इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में रामविलास पासवान खुद भी हाजीपुर सीट से चुनाव हार गए. यही नहीं  2010 के विधानसभा चुनाव एलजेपी आरजेडी के साथ मिलकर 75 सीटों पर लड़ी, लेकिन तीन सीट ही जीत सकी. इस तरह से एलजेपी का राजनीतिक ग्राफ बिहार में सिमटता गया, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ हाथ मिलाने के बाद एलजेपी को संजीवनी मिली. साल सीटों में 6 संसदीय सीटें जीतकर पासवान केंद्र में मंत्री बन गए, लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ मिलकर लड़ा. 

एलजेपी के पास महज 5 फीसदी वोट 

एलजेपी ने 2015 के चुनाव में 42 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे, पर महज 2 सीट ही मिल सकीं. हालांकि, एलजेपी को इन सीटों पर 28.79 फीसदी वोट मिले थे, जो राज्य स्तर पर 4.83 फीसदी हैं. जबकि 2005 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी को राज्य में 11.10 फीसदी वोट मिले थे. दरअसल, एलजेपी अकेले चुनावी मैदान में कोई अपना खेल तो नहीं बना पाती है, लेकिन दूसरे का खेल बिगाड़ने की ताकत जरूर रखती है. वो इसलिए क्योंकि पांच फीसदी दुसाध वोट एलजेपी का मजबूत वोट माना जाता है. इसी के दम पर एलजेपी केंद्र में हिस्सा तो पा लेती है, लेकिन बिहार में सत्ता की धुरी नहीं बन पा रही है. 

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